डॉ. रौबी फौजदार - दर्द पुराने घावों के (कविता)
डॉ. रौबी फौजदार - दर्द पुराने घावों के (कविता)
दर्द पुराने घावों के
मत पूछिए मंजर –ए-हाल क्या था।
लोग सिमटे हुए अपने दायरे में थे ।
बस एक मैं बेबस निढाल था।
दर्द सबके एक थे बस बदले हुए बयान थे।
कैसे कह दूँ तुम अलग वे अलग थे।
दोनों का खून एक रब भी एक थे ।
इस तरह से काट रहे हैं शाम ए ज़िन्दगी।
दीवार घनी शक की बीच उनके है तनी।
भरोसा है न उम्मीद की किरण कोई ।
सुलह हो भी कैसे भला भरोसे की ।
डोर विश्वास की टूटी दोनों के बीच ही ।
बोलो कटेगा किस तरह अब ये सफ़र ।
जब दोस्त बन गये दुश्मन सभी ।
कोशिश भी नाकाम हैं सब हौसले की ।
बात इतनी बढ़ गयी है गलतफ़हमी की।
ढल ही जाएगी शब उदासी से भरी।
होगी फिर सुबह एक ख़ुशी से भरी सभी ।
- डॉ. रौबी फौजदार
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