समीक्षा
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मुझे पहचानो - डॉ. उषा
सती प्रथा पुरातन भारतीय समुदायों में प्रचलित एक ऐसी धार्मिक प्रथा थी, जिसमें किसी पुरुष की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी को उसके अंतिम संस्कार के दौरान उसकी चिता में स्वयं से प्रविष्ट हो जाती थी या जबरन उसे आत्मदाह करवाया जाता था। इस अमानवीय परंपरा के पीछे मूल कारक सांस्कृतिक गौरव को माना जाता था। सांस्कृतिक गौरव तो था ही पर इसके साथ 'शुचिता' का प्रश्न स्वत: उभरता है। पुरुषवादी यौन शुचिता की परिणति के रूप में सती प्रथा समाज के सामने व्याप्त होती है। संजीव जी ने 'मुझे पहचानो' उपन्यास द्वारा समाज के पाखंड की परतों को उधेड़ने का भरसक प्रयास किया है।
उपन्यास की शुरूआत होती है- रत्नों के देश में रत्ना पट्टी से जो घिरा हुआ है पहाड़ी और फैली हुई रियासत कंठा से। परन्तु सम्पूर्ण उपन्यास में जो केन्द्रित है वो है सती प्रथा जैसी कुप्रथा पर। राजा राममोहन राय की भाभी को जब सती किया जा रहा था या जबरन जिंदा जलाया जा रहा था तभी बारिश होने के कारण लोग रात को जला कर लौट आए थे। लेकिन सुबह लोगों ने पाया कि वहीं झाड़ियों में अधजली अवस्था में कोई नंगी औरत छुपने की कोशिश कर रही है, वही थी तब गांव वालों ने उन्हें दुबारा जलाया। कितनी क्रूर- हिंसक तथा अमानवीय सामाजिक व्यवस्था की सत्ता को उजागर किया गया है।
“हमारा बहादुर हिंदू समाज! आंधी-पानी से डरा हुआ या गोरों की फ़ौज की टुकड़ी से। डरकर घरों में जाकर सुरक्षित हो गए। जैसे चूहे सुरक्षित महसूस करते हैं अपनी बिलों में जाकर। बिलों से सुबह निकले तो एक औरत झाड़ियों में छुपती फिर रही थी। देखा पहचाना,अरे यह तो जगन्मोहन की पत्नी ( राजा राममोहन राय की भाभी अलोक मंजरी) है।
एक-एक कर लोग जुटे होंगे, औरतें जुटी हाेंगी, बूढ़े जुटे होंगे, बच्चे जुटे होंगे, पंडित जुटे होंगे, ज्ञानी जुटे होंगे, गरज की पूरा गांव जुटा होगा, ज्ञान मंथन हुआ होगा, क्या किया जाए? शास्त्रों में तो ऐसा कोई निर्देश है नहीं। लोग चीखने लगे होंगे, जो करना है जल्दी करो। इसका बच जाना और जल कर बच जाना मरने से भी ज्यादा खतरनाक है। जलाओ, इसे फिर से जलाओ । सती दहन की क्रिया को अधूरा नहीं छोड़ा जा सकता। इस तरह सतीदाह की प्रक्रिया दुबारा संपन्न हुई होगी”।
कितनी दर्दनाक और भयावह घटना होती रही। हमारे समाज में। अगर 'राजा राममोहन राय' और 'लार्ड विलियम बैंटिक' ने सतीप्रथा के विरुद्ध कानून न बनाया होता तो ऐसी कुप्रथा का समापन न हो पाता ।
उपन्यास के कथानक में बतौर विजयगढ़ और अजयगढ़ में फैली रायसाहब और लालसाहब की राजनीतिक व्यवस्था का भी विस्तार है। 'दुबे' जो रायसाहब के यहां मैनेजर है भाप चुका है पूरी तरह से यहां की राजनीति व्यवस्था को। और अपने दोस्त मनोज को राजनीति तिकड़म समझाने में देर नहीं लगाता है। परंतु नि:संदेह सम्पूर्ण उपन्यास सती प्रथा व सती मन्दिर को बनवाने के ढकोसलों को उजागर करता है। जहां स्त्री जीवन कोई मायने नहीं रखता।
संजीव जी ने बहुत ही मार्मिक व नाटकीय तौर पर कथावस्तु के समापन को रख कर बताने के चेष्टा की है की धर्म और परंपरा के नाम पर सैंकड़ों ऐसी अलोक मंजरी को आत्मदाह करने के लिए मजबूर किया जाता है या जबरन करवाया जाता है।
अंतत: सजीव जी 'मुझे पहचानो' उपन्यास के उद्देश्य को स्पष्ट करने में सफल रहे हैं। भाषा प्रवाह तथा मार्मिकी टिप्पणियों के कारण उपन्यास को एक ही बैठकी में पढ़ा जा सकता है।
- डॉ. उषा
मो.8074091928
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