नारी शक्ति को समर्पित "रचना पर्व"
नारी शक्ति को समर्पित "रचना पर्व"
नाथ सम्प्रदाय की आष्टांगिक योग साधना : सिद्धान्त एवं अवधारणा - डॉ गोपीराम शर्मा
भक्ति आंदोलन से पूर्व गोरखनाथ मे एक धार्मिक आंदोलन या भक्तिमार्ग को चलाया। उन्होंने पंजाब, गुजरात, काठियावाड़, उत्तर प्रदेश, असम, उड़ीसा आदि की स्थानों की यात्रा की। उन्होंने संस्कृत और देसी भाषा में काव्य लिखा। आचार्य हजारी प्रजाद द्विवेदी ने उन्हें अपने युग का सबसे बड़ा नेता बताया। मिश्र बंधुओं ने गोरखनाथ को प्रथम गद्य लेखन माना। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते है- “शंकराचार्य के बाद इतना प्रभावशाली और इतना महिमान्वित भारतवर्ष में दूसरा नहीं हुआ। भारतवर्ष के कोने-कोने में उनके अनुयायी आज भी पाए जाते हैं। भक्ति आंदोलन के पूर्व सबसे शक्तिशाली धार्मिक आंदोलन गोरखनाथ का भक्ति मार्ग ही था। गोरखनाथ अपने युग के सबसे बड़े नेता थे।”1
राहुल सांकृत्यायन ने नाथों को सिद्ध परम्परा का ही विकसित रूप माना है। डॉ. राम कुमार वर्मा ने इनका चरमोत्कर्ष काल 12वीं से 14 वीं शताब्दी के मध्य माना है। नाथों की संख्या नौ मानी गई है, पर इनके नामों में भी सूची अलग-अलग मिलती है। राहुल सांकृत्यायन ने नौ नाथ बताएं हैं- नागार्जुन, जड़भरत, हरिश्चन्द्र, सत्यनाथ, भीमनाथ, गोरखनाथ, चर्पटनाथ, जलंधरनाथ और मल्यार्जुन। इन नामों से विद्वान सहमत नहीं हैं। डॉ. रामकुमार वर्मा और आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने नव नाथों की जो सूची बताई है। वह इस प्रकार है- आदिनाथ, मत्स्येंद्रनाथ, गोरखनाथ, गाहिणीनाथ, चर्पटनाथ, चौरंगीनाथ, जालंधर नाथ, भर्तृहरिनाथ और गोपीनाथ।
नाथों को योगी या जोगी भी पुकारा जाता है। ये नाथ योगी मेखला, श्रृंगी, सेली, गुदरी, खप्पर, कर्णमुद्रा, बघंबर, झोला आदि चिह्नों को धारण करते हैं। कानों को चिरवाकर मंत्र संस्कार करके मुद्रा धारण करने वाले 'जोगी 'कनफटा और कान नहीं चिरवाने वाले 'औघड़' कहलाते हैं। नाथ सम्प्रदाय का साहित्य हिन्दी तथा संस्कृत दोनों भाषाओं में मिलता है। इसके अलावा अन्य भाषाओं में नाथों की रचनाओं मिलती है। संस्कृत में सिद्धसिद्वान्तपद्धति', 'गोरख संहिता', 'महार्थमंजरी आदि प्रमुख ग्रंथ है तो हिन्दी रचनाओं में डॉ. पीताम्बर बड़थ्थवाल की 'गोरखवाणी' प्रमुख है। एक ग्रंथ हजारी प्रसाद द्विवेदी का है जिसमें 25 नाथ-सिद्धों की बानियाँ हैं।
नाथ पंथ के योगी या सिद्धों और आचार्यों की अनेक स्रोतों से जो सूची प्राप्त होती है उसमें किसी भी जोगी सिद्ध को गुरु नहीं कहा गया और न ही किसी को सिद्धांत, पंथ या पद्धति के प्रवर्तन का श्रेय दिया गया है। गोरखकालीन भारतीय इतिहास (600 से 1200 ईस्वी) में अनेक धार्मिक मत, सिद्धांत एवं पद्धतियों के बावजूद गोरखनाथ को ही पंथ प्रवर्तन एवं गुरु पद्धति का श्रेय दिया जाता है। सातवीं आठवीं शताब्दी में शंकराचार्य ने बौद्ध दर्शन के शून्यवाद और अनित्यवाद को परास्त कर उसकी जड़ें दिला दी इसलिए बौद्ध धर्म की आचारहीनता का विरोध करते हुए गोरखनाथ में सदाचार की दिशा में मार्ग प्रवर्तन किया।
नाथ और विशेषकर गोरखनाथ ने तत्कालीन समाज में व्याप्त आडंबरों- प्रपंचों तथा वितंडावादों पर चोट की। तत्कालीन समाज में जितने भी अनाचार, कुरीतियां, व्यभिचार और कर्मकांड प्रचलित थे, सब पर नाथों ने प्रहार किया। इस समय सिद्धों के तंत्र मंत्रों का भी बोलबाला था और इस्लाम के नाम पर भी समाज को प्रताड़ित किया जा रहा था। उन्होंने इस्लाम के नाम पर होने वाले कत्लों और संघर्षों को भी आईना दिखाते हुए कहा-
महंमद महंमद ना कर काजी महंमद का विषय विचारं।
महंमद हाथि करद जो होती लोहै घड़ी न साथ।।2
अर्थात् काजी को फटकारते हुए गोरखनाथ कहते हैं कि है कई तू बार-बार मोहम्मद का नाम लेकर क्यों काफिरों के नाश करने की बात कह रहा है। इस संबंध में मोहम्मद के विषय में विचार करके देख, उसके हाथ में लोहे की तलवार नहीं है, न ही फौलाद की है, वह तो तत्त्व ज्ञान की है।
सिद्धों ने भी चमत्कार दिखा करके जनता को भ्रमित करना शुरू कर दिया था। ऐसे लोग न किसी दर्शन को जानते थे नहीं तत्वज्ञान को। नाथों ने ऐसे पाखंडी साधुओं से सचेत रहने का संदेश दिया है। ऐसे लोग पाखंडों- चमत्कारों को जानते हैं, परमात्मा या योग को नहीं जानते -
सांग का पूरा, ग्यान का ऊरा पेट का टूटा डिंभ का सूरा।
बदंत गोरख न पाया जोग करि पाखंड रिझाया लोग।।3
नाथों ने कहा कि बहुत-से लोग अभाव और परिस्थिति बस संन्यासी या साधु का वेश धारण कर लेते हैं। ऐसे लोगों का वैराग्य तत्व ज्ञान और भक्ति से कोई वास्ता नहीं होता-
रांड मुआ जती धाये भोजन सती, नासे धन त्यागी।
नाथ कहै ये तीन्यौ अभागी।4
नाथ समरस समाज की कामना करते हैं। नाथों की दृष्टि में कोई ऊंच-नीच या जाति-पांति जैसी मान्यता नहीं। वे कहते हैं -
गरब न करिबा सहजै रहिबा, भणत गोरख राव।
गुपति चक्र चलाओ हथियार, पंडित बुद्धि बहु अहंकार।5
जब नाथों ने समाज में ऊंच-नीच, तंत्र मंत्र और बाह्याचार, आडंबर देखे तो उन्होंने जाना कि ईश्वर का मार्ग बहुत कठिन है, इसलिए उन्होंने प्राणायाम को महत्त्व दिया। नाथ पंथ में प्राणायाम को नाड़ी शोधन का श्रेष्ठ उपाय बताया है-
उठत पवनां रवि तपंगा बैठंत पवनां चंद।
दुहूं निरंतर जोगी विलंबै बिद बसै जहां ज्यंद।।6
अर्थात् सूर्य नाड़ी में पवन उठती है और चंद्र नाड़ी में शांत हो जाती है। योगी इन दोनों से अलग सुषुम्ना में आश्रय लेता है, जहां बिंदु और प्राणतत्व(ज्यंद) रहते हैं।
प्राणायाम को नाथों ने हठयोग के नाम से विकसित किया और इसके लिए गुरु तत्त्व को आवश्यक माना। गुरु के बिना उन्होंने परमतत्व प्राप्ति को असंभव माना-
गुरु कीजै गहिला निगुरा न रहिला।
गुरु बिन ग्यान न पायला रे भाइला।।
दूध धोया कोयला ऊजला न होयला
कागा कंठै पुहुप माल हंसला न मेइला।।7
"सिद्ध सिद्धांत पद्धति" में हठयोग शब्द की व्याख्या इस प्रकार से दी गई है-
हकार: कथितः सूर्यष्ठकारश्चं उच्यते।
सूर्याचन्द्रमसोर्योगात् हठयोगोनिगधते।
अर्थात् है अर्थ सूर्य और ठ का चन्द्र तथा सूर्य और चन्द्र का योग है- हठयोग।8
योगग्रंथों में सूर्य और चन्द्र की अनेक प्रकार से व्याख्या हुई है। सूर्य इड़ा नाड़ी को तथा चन्द्र पिंगला नाड़ी को कहा जाता है एवं दोनों रोककर प्राणवायु को सुषुम्ना में संचरित करना हठयोग है। इसी प्रकार सूर्य प्राण वायु को, चंद्र अपानवायु को, दोनों का योग-प्राणायाम द्वारा निरोध हठयोग है।
हठयोग एक शारीरिक शुद्धि की प्रक्रिया है। योगी यह मान कर चलता है कि मनुष्य के शरीर में ही सारी शक्तियाँ विद्यमान हैं। इन्हें नियम एवं लगन से जन्म मृत्यु की बाधाओं से परे जाते हुए अमरत्व पाया जा सकता है। हठात् ही मुक्तिद्वार खुल जाने के कारण इस साधना को हठयोग साधना कहा गया है।
नाथ पंथ में शुद्धि की क्रियाओं को षटमार्ग कहा गया है, जो हैं- धोति, वस्ति, नेति, त्राटक, नीलि और कपालभाति। नाड़ियों को दो भागों में बाँटा जाता है- एक भाग सूर्यांग जिसमें इड़ा आती है तथा दूसरा भाग चन्द्रांग, जिसमें पिंगला आती है। इनके मध्य सुषुम्ना स्थित है। जब योगी चन्द्र और सूर्य के मार्गों को बंद कर देता है तब वायुशक्ति संयमित होकर यौनिकंद के मूल में स्थित ब्रह्म नाड़ी के मुख ऊपर उठती है तो वस्तुत: कुंडलिनी ऊर्ध्वमुख होती है। इस प्रकार उद्बुद्ध हुई कुंडलिनी मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर,अनाहत, विशुद्ध तथा आज्ञा-इन षटचक्रों को भेदकर सहस्रार में पहुंचती है। यही पिंड का कैलास है, शिव का निवास है।
डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी इसी साधना के संबंध में कहते हैं कि इन चक्रों के बाद शून्य चक्र मिलता है, वहाँ पर सहस्रदल कमल होता है। इसलिए इसे सहस्त्रार में स्थित गगन मंडल में औंधे मुंह का अमृत कुंड कहा गया है । यही चंद्रतत्व है जिससे निरंतर अमृत झरता है, जिनके पान से योगी अजरामर हो जाता है-
गगन मंडल में औधा कुंआ तहं अमृत का वासा।
सगुरा होय सो झरझर पिया, निगुरा जाहि पियासा॥9
नाथों इस हठयोग के अंगों का भी वर्णन किया है। हठयोग के आठ अंग बताए हैं, जिसे अष्टांग कहा गया है। ये आठ है - यम,नियम, आसन, प्राणयाम, प्रत्याहार तथा ध्यान, धारणा और समाधि।
इन अष्टांगिक योगों का संक्षेप में परिचय इस प्रकार है-
यम - यम बाहरी और भीतरी इन्द्रियों के सयंमन (वृत्ति संकोचन) को कहते हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना) ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (किसी से कुछ न लेना)। ये पाँच यम है। इन यमों में (संयमों) के विपरीत क्रियाओं हिंसा, असत्य, स्तेय, तीर्थक्षय, परिग्रह को वितर्क कहते हैं। इनका फल दुःख और अज्ञान है।
नियम - वितर्कों के दमन और संयमों की उपलब्धि के लिए शास्त्रकार ने पाँच प्रकार के नियम बनाए है। शौच (पवित्रता), सन्तोष, तप, व्यायाम, ईश्वर- प्राणायाम। नाथों मे ने इसे अपने सिद्धांतों में शामिल किया है और रचनाओं में भी।
आसन- योगाभ्यास के लिए विभिन्न प्रकार के आसन उपयोगी बताए गए हैं। पातंजल दर्शन ने स्थिर और आरामदायक मुद्रा को योग का अभ्यास करने का स्पष्ट तरीका बताया है।
प्राणायाम - श्वास को भीतर भरना (पूरक) उसे फिर बाहर निकालना (रेचक) प्राणायम कहा जाता है। प्राण अर्थात वायु के संयमन से मन का संयमन सहज होता है।
प्रत्याहार - शब्दादि बाह्य व्यापारों से कान प्रभृति इन्द्रियों को हटाकर पहले अन्तर्मुख करना होता है। उस अवस्था में बाह्य विषयों के साथ इन्द्रियों का कोई सम्पर्क न होने से वे चित्त का सम्पूर्ण रूप से अनुकरण करती हैं। इन्द्रियों की इस प्रकार की अवस्था का नाम ही प्रत्याहार है।10
धारणा- प्रत्याहार के समान धारणा भी अन्ततः साधना ही है। नाथ योग में साधना का बड़ा महत्व है। इसी के अन्तर्गत कुंडलिनी योग, लय योग तथा षटचक्र- वैधन आदि आते हैं। गोरखबानी में धारणा की शास्त्रीय व्याख्या तो नहीं मिलती परन्तु उसके फलों की विस्तृत चर्चा मिलती है। गोरख के नाम से प्रसिद्ध एक रचना अपरचक्र' है जिसमें आठ चक्रों का वर्णन हुआ है।
गोरखबानी में आठ चक्रों की चर्चा मिलती है- मणिपूर,अनाहत, विशुद्ध, अग्नि, कार्या, सहस्रदल, कमल और सूक्ष्म। यह एक क्रम है जिसे ऊर्ध्व-क्रम कहा जाता है। सामान्य रूप से आठ चक्रकों की स्थिति इस प्रकार है-
1. आधार चक्र 2. दृष्टि चक्र 3. मणिपूर
4. अनाद्ध चक्र 5. विशुद्ध चक्र 6. अग्नि चक्र
7. ज्ञान-चक्र 8. सूक्ष्म चक्र11
'मछीन्द्र गोरखबोध में छः चक्रों का विस्तार से वर्णन किया गया है। गोरखबानी में भी कई स्थानों पर कुछ भेद के साथ चक्रों की चर्चा हुई है। सन्त साहित्य में सहस्रार सहित सात चक्रों का विस्तार से वर्णन हुआ है। 'षट्चक्रनिरूपण' में यह वर्णन मिलता है।
ध्यान- धारणा के पश्चात ध्यान का स्थान है। ध्यान धारणा की ही परिपक्वावस्था है जिसमें ध्याता और ध्येय का पूर्ण तादात्म्य होता है तथा जिसे परमाद्वैत भाव कहा गया है। यह एक भावना है जिसे आत्मस्वरूप स्थित कह सकते हैं। ध्यान परिपक्वास्था ही समाधि है। गोरखबानी में ध्यान के स्थानों का निर्देश है। आज्ञा चक्र में ध्यान करने से मन उन्मन हो जाता है उस स्थिति को मनोन्मनी स्थिति कहते हैं। गोरखबानी में चक्रों अथवा गाँठों पर ध्यान करने का विधान है। यह ध्यान तान्त्रिकों के ध्यान से भिन्न है। नाथों के ध्यान का विषय स्वयं बोध है। जो अगम अगोचर असीम अनन्त और निरंजन है। ध्येय के समान ध्याता भी अलग ही है। गोरखनाथ के अनुसार यह ध्यान सहज स्थिति का है जो हँसते, खेलते चलते फिरते लगाया जा सकता है। इस प्रकार के ध्यान में स्थूल विषयों को छोड़कर जगदीश का ध्यान करने का उपदेश 'गोरखबानी में किया गया है।
समाधि - षडंग योग में अन्तिम स्थान समाधि का है। समाधि का प्रायः सभी योग शास्त्रों में हुआ है। हठयोग के ग्रन्थों में भी समाधि का सैद्धान्तिक विवेचन है परन्तु नाथों की वाणी में समाधि का सैद्धान्तिक विवेचन न के बराबर है। नाथ योग के अनुसार समाधि एक अवस्था का नाम है जिसमें सभी तत्वों की समान स्थिति रहती है तथा आभास और उधम का आभाव रहता है। इस स्थिति में अद्वैत तत्व की अनुभूति होती है तथा साधक पूर्ण से संकल्पविहिन हो जाता है।
'गोरखबानी' में समाधि शब्द का वर्णन कई रूपों में हुआ है। समाधि परम स्थिति शून्याशून्य होती है समाधि की दशा में ही निरंजन तादात्म्य सम्भव है। 'गोरखबानी' में निरंजन शब्द का प्रयोग कई बार किया गया है। यह निरंजन शून्य है, परमात्मा है। परमसुख है उसकी उपलब्धि तीन लोकों में न होकर पिंड में ही होती है जीवन अंजन में भटक कर निरंजन तत्व को भूल जाता है। योगी अपनी साधना से निरंजन में विलीन हो जाता है। श्रेष्ठ समाधि सहज समाधि ही है। इस सहज स्वभाव की सिद्ध हठयोग द्वारा की जाती थी।
कह सकते हैं कि नाथों ने हठयोग और उसके अंतर्गत अष्टांगिक मार्ग के द्वारा चित्त शोधन की पद्धति विकसित की। नाथों की इस योग पद्धति द्वारा मन शोधन और शरीर शोधन होता है साथ ही बाह्य आडम्बरों पर भी विराम लगता है। आष्टांगिक मार्ग द्वारा समाज में अनुशासन से जीवन जीने के कुछ मार्ग तय किए जाते हैं। नाथदर्शन एक व्यावहारिक दर्शन है जिसमें सभी दर्शनों की प्रमुख मान्यताओं का समाहार हुआ है। इस पंथ में ब्रह्मचर्य,आन्तरिक शुद्धि तथा मद्य-मांसादि के बहिष्कार पर विशेष बल दिया है।
"नाथपंथी साधना के लोकव्यापक प्रभाव ने यद्यपि मध्ययुग की चिन्ता को विशेष रूप से स्पर्श किया है किन्तु वास्तव में नाथ पंथ एक साधना पंथ ही था, बौद्ध सहजयान धर्म की तत्वमीमांसा और व्यवहार की तुलना में नाथ पंथ एक विशुद्ध साधना पंथ ही बना रहा।"12
निष्कर्षतः गोरखनाथ ने जिस संस्कृति को जन्म दिया वह उच्चतम मानवीय मूल्य लिए है। यहां ईश्वर की प्राप्ति लिए दुनिया भर में भटकने के स्थान पर अपने अंदर झांकने की सलाह दी गई है, क्योंकि गोरख पिंड में ब्रहमाण्ड के प्रति विश्वास करने वाले थे। आन्तरिक गहराइयों के साक्षात्कार का मार्ग है योग। जिसका मूल तत्व है - संयम। वाक्, मन, बिन्दु आदि में से किसी एक को संयमित करने पर सभी संयमित हो जाते हैं- "एक साधै सब सधै।
गोरखी संस्कृति में मूलतः व्यक्ति पर बल दिया गया है। गुरु गोरखनाथ ने आम जनजीवन को व्यापक और गहन रूप में प्रभावित किया है। गोरखनाथ ने जातपांत, छुआछूत तथा बाहरी आडम्बरों का विरोध किया है। गुरु गोरखनाथ ने कर्मकाण्ड का विरोध भी पूर्ण रूप से किया है। गोरखनाथ और उनके योग मार्ग ने समाज में फैल रहे अनाचार, सिद्धों -बौद्धों के युगनद्ध प्रतीकों और वामाचार के घृणित मार्ग पर अंकुश लगाया तथा समाज को सदाचार की राह दिखाई।
संदर्भ संकेत
1.डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, नाथ संप्रदाय, पृष्ठ 115
2. डॉ. बड़थ्वाल, गोरखबानी, पृ० 15
3. वही, पृष्ठ-78
4.वही, पृष्ठ-50
5. वही, पृष्ठ-30
6. वही, पृष्ठ-120
7. वही, पृष्ठ- 128
8. डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, नाथ सम्प्रदाय, पृष्ठ 123
9. वही, पृष्ठ-64
10. डॉ. मनीषा शर्मा, गोरखबानी परम्परा और काव्यत्व, पृष्ठ 38-45
11. वही, पृ0 47
12. डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, नाथ सम्प्रदाय, पृष्ठ 187
डॉ. गोपीराम शर्मा, सह आचार्य,
हिन्दी विभाग, डॉ. भीमराव अम्बेडकर राजकीय महाविद्यालय, श्रीगंगानगर (राजस्थान 335001),
ईमेल drgrsharma76@gmail.com
अस्वीकरण (Disclaimer): इस लेख/कविता/रचना में व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं और उनकी व्यक्तिगत दृष्टि को दर्शाते हैं। ये विचार स्मिता नागरी लिपि साहित्य संगम/शोध निरंजना के संपादक अथवा संपादकीय मंडल के सदस्यों या उनके विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करते।